तेवरी इसलिए तेवरी है [ भाग-2 ]
+रमेशराज
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‘‘यदि यही तेवरी आन्दोलन विदेश से आया होता हो यहां के मूर्धन्य साहित्यकार आलोचना
नहीं करते।’’ +सुहैल अख्तर, तेवरीपक्ष -जु.दिस. जु.दिस. 84, पृ.5
‘‘पूर्वज का घायल होना, युवाओं की मुट्ठी नहीं बँधवायेगा,
तो वर्तमान नपुंसक कहलायेगा। कलम से उठी आग, लोहार
की भट्टी की आग बने।’’
+मुकुट सक्सेना, तेवरीपक्ष-जु.-दिस. 84,
पृ. 8
‘‘ तेवरी आदि से अन्त तक अलाव की आग की
एक-सी तपिश लिए होती है।’’
+नीतीश्वर शर्मा नीरज , तेवरीपक्ष-जु.-सित. 89,
पृ. 8
‘‘ हिन्दी ग़ज़ल मुझे भी कभी समझ नहीं
आयी। उर्दू ग़ज़ल को हिन्दी में लाकर नये कवियों ने बहुत अहित किया है। इस विधा को
तेवरी के रूप में ही यदि नया ढांचा देकर प्रतिष्ठित किया जाये तो हर्ज नहीं।’’
+डॉ. रंजन जैदी,
तेवरीपक्ष-जन.मार्च-
89, पृ. 3
तेवरी और ग़ज़ल के इस तुलनात्मक विवेचन/ विश्लेषण से यह तथ्य तो पूरी तरह साफ हो ही जाता है कि तेवरी की काया में भले
ही कुछ लोगों को ग़ज़ल की माया के दर्शन होते हों लेकिन तेवरी इस कारण ग़ज़ल से अलग
है क्योंकि उसकी काया का हर अंग || शिल्प
|| आग की भाषा बोलता है, जबकि ग़ज़ल का शिल्प केवल प्रेमिका के
जूड़े को बांधता और खोलता है।
ग़ज़ल के रदीफ-काफिये या शे’र प्रेमी-प्रेमिका
को रिझाने-मनाने, रति के लिये उकसाने के
साधन हैं। जबकि तेवरी की तुकान्त, द्विपदिका या छन्द व्यवस्था
लोहार के हथौड़े की वह चोट, या चोट का संगीत है जो लोहे को हथियार
की शक्ल देता है।
तेवरी को इसलिए तेवरी मानना पड़ेगा क्योंकि इसकी
वाणी में ईलू-ईलू की आवाज नहीं, इसकी आंखों से प्रेम के झरने नहीं झरते। तेवरी तो पुराण-पुरुष शिव की तीसरी आंख है।
‘‘पुराण-पुरुष की
तीसरी आंख जब खुलती है तो किसी ज्वालामुखी की भांति तप्त लावा उगलती है। और पाप का
प्रत्यूह तथा कामाचार का अवरोध जलकर राख हो जाता है। तेवरी के शब्द-संधान को देखकर ऐसा प्रतीत होने लगा है कि वर्तमान सामाजिक विसंगतियों और सामाजिक
विद्रूपताओं में आग लगाने के लिए युवा आक्रोश की तीसरी आंख खुल गयी है।’’
+डॉ. रवीन्द्र भ्रमर,
तेवरीपक्ष-जन.मार्च.
87, पृ. 23
तेवरी के बारे में आदित्य श्रीवास्तव का कहना है
कि ‘‘परिस्थितियां दिन पर दिन बदतर होती जा रही हैं।
चारों ओर वातावरण में घुटन, संत्रास, भ्रष्टाचार,
अन्याय व्याप्त है। ऐसे में प्रेमालाप करना ठीक उसी भांति है,
जिस प्रकार कोई अपनी झोंपड़ी में आग लगने पर मल्हार गाये। +तेवरीपक्ष-
जन.मार्च.- 87, पृ.
18
“तेवरी के तेवर देखने-पढ़ने लायक हैं। गोया ये बदलते वक्त की तस्वीर हैं। तेवरी के तेवर कुछ ज्यादा
ही तेज होने के कारण तेवरी का फार्म ग़ज़ल से बिलकुल अलग है।“
+श्रीराम मीना, तेवरीपक्ष- जन. मार्च-
87, पृ. 20द्ध
“वक्त की त्यौरी के साथ आदमी के तेवर भी बदल रहे
हैं। ये तेवर यथार्थोन्मुखी होने के कारण खोखले आदर्शों की लहरों को चीर रहे है। ’’
+डॉ. निष्काम, तेवरीपक्ष-जन.-मार्च.
87, पृ. 21
तेवरी अपना काव्यशास्त्र स्वयं रच रही है
.....
‘‘तेवरी भाषा, छंद,
अलंकार, मुहावरे, प्रतीक
सभी स्तरों पर स्वतंत्रा इयत्ता की स्वामिनी है, अतः ग़ज़ल से
उसके विरोध का प्रश्न ही नहीं उठता।
तेवरी की भाषा अत्यंत परुष और तीखी है। उसका शब्द-शब्द अग्नि-वाण होता है, जो कुव्यवस्था
के रावण को नष्ट करने के लिये सदा उद्यत रहता है |
तेवरी भीड़ में से शब्दों को उठाती है और भीड़
के दिलो-दिमाग में बो देती है। इस नाते तेवरी ग़ज़ल से दृष्टियों से भिन्न है।
ग़ज़ल में
शृंगार प्रधान होता है और उसका प्रत्येक शे’र अपना अलग अस्तित्व रखता हैं जबकि तेवरी दैहिक शृंगार के विरुद्ध है।
ग़ज़ल में मतला-मक्ता का अनुशासन मानना पड़ता है,
जबकि तेवरी में ऐसा करना आवश्यक नहीं है |
ग़ज़ल के काफिया-रदीफ, तेवरी की तुकों से भाव तथा भाषा-में भिन्नता
लिए होते हैं। अच्छी तेवरी की तुक ग़ज़ल के रदीफ-काफिये के लिए
अनुपयुक्त हो सकती है-अपनी निजी विशेषता के कारण।
तेवरी में मुहावरों तथा प्रतीकों का विशेष महत्व
है। इन्हीं से तेवरी सप्रमाण है। तेवरी के प्रतीक ऐसे हैं जो जनसमान्य की समझ में तुरन्त
आते हैं और उसे वस्तु-स्थिति का ज्ञान करा देते हैं।
ये प्रतीक राजनैतिक, नौकरशाही, प्राकृतिक
दैनिक व्यवहार सम्बन्धी , वैज्ञानिक तकनीकी ऐतिहासिक व पैराणिक
वातावरण सम्बन्धी , खरीद व रोग सम्बन्धी , पशुपक्षी सम्बन्धी तथा अन्य विविध प्रकार के हैं।
+डॉ. कृष्णावतार ‘करुण’, तेवरीपक्ष-जन.-मार्च. 87, पृ. 27
तेवरी में लयात्मकता या गेय तत्व का आधार ‘फाइलातुन फाअ फैलुन आदि’ न होकर हिन्दी के छन्द हैं।
जिनका मकरंद अलग ही तरह का आनंद देता है।
तेवरी में हिन्दी छन्दों के प्रयोग को लेकर डा. भ्रमर कहते हैं कि ‘तेवरी’ में
हिन्दी छन्दों का प्रयोग विशेष दृष्टव्य है। आल्हा के लोकछन्द में बुनी गयी एक सफल
रचना इस प्रकार है-
‘हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।
+सुरेश त्रस्त, कबीर जि़न्दा है
............................................
दोहाछन्द में तेवरी का प्रयोग भी देखिए-
रोजी-रोटी दे हमें या तो
ये सरकार
वर्ना हम हो जायेंगे गुस्सैले-खूंख्वार।
+रमेशराज
‘तेवरी’-रचनाओं में पुराने छन्दों के अभिनव प्रयोग के साथ जन-भाषा की मुखरता और सम्प्रेषण की सहजता एक विशिष्ट आयाम को उभारती है।
+डा. रवीन्द्र भ्रमर, तेवरीपक्ष-जन.
मार्च. 87, पृ.16द्ध
‘‘तेवरी को सहज भाषा में उठाया गया है
एवं इसमें चौपाई, दोहा, आल्हा, घनाक्षरी, सवैया आदि छंद, सभी कुछ
शामिल है। इसके अन्तर्गत ग़ज़ल की तरह कोई नियम या विधान नहीं।’’
+आदित्यश्रीवास्तव,तेवरीपक्ष-जन.मार्च.-87,
पृ.18
‘‘दरअसल तेवरी नये तेवरों के अनुशीलन
की विधा है, जिसमें राग है, लय है और सबसे
बड़ी बात इसकी मारक क्षमता है।’’
+श्रीराम मीना,तेवरीपक्ष-जन.मार्च.87,पृ. 20
‘‘ तेवरी का भावपक्ष निष्पक्ष है,
जो हमारे लिए व समाज के लिए एक दर्पण के तुल्य है, जिसमें समाज के शोषित, सीधे -सादे
लोग यह देख सकते हैं कि हमारी खून-पसीने की कमायी का क्या होता
है?’’
+रामानुज वर्मा, तेवरीपक्ष, जन.-मार्च.
87, पृ. 31
तेवरी टेस्ट-टयूब बेबी नहीं-
‘‘तेवरी की उत्पत्ति युगानुरूप है। समय
की मांग के अनुसार ही इसका जन्म हुआ है। यह टैस्ट-ट्यूब बेबी
की तरह कृत्रिम गर्भाधान से उत्पन्न अथवा जोड़ तोड़ से बनाया गया रूप नहीं है बल्कि
लघुकथा की तरह पाकसाफ वैधानिक एवं प्राकृतिक और स्वाभाविक तौर पर उत्पन्न रूप है।’’
+रवीन्द्र कंचन, तेवरी पक्ष- जन.मार्च.
87, पृ. 32
तेवरी ग़ज़ल से इसलिए भी अलग है....
तेवरी के बारे में विभिन्न विद्वानों के अभिमतों से
जो तथ्य उभरकर आते हैं उनके आधार पर तेवरी ग़ज़ल से इसलिए भी अलग हो जाती है क्योंकि-
तेवरी में उरुज-रुक्न-अर्कान का विधा न नहीं है, बल्कि हिन्दी के छन्दों का प्रावधान है। वस्तुतः तेवरी के लिए हिन्दी के छन्द
ही उसके भाव-रूप जैसे आक्रोश, विरोध,
विद्रोह को व्यक्त के लिए हर प्रकार रागानुकूल है, जबकि ग़ज़ल की बह्र उसके भावरूप रति या शृंगार के पक्ष के रागानुकूल है।
‘मारि-मारि,
भूपै डारि, जां निकारि पाक की’ जैसी ओजस अभिव्यक्ति को केवल हिन्दी का छन्द ही व्यक्त कर पाने में समर्थ हैं।
ग़ज़ल की बहर में यदि इस भावात्मकता को बांधा
जाएगा, तो सारा गुड़ गोबर नजर आयेगा।
तेवरी की तुक-व्यवस्था भी ग़ज़ल की तुक व्यवस्था से इस कारण भिन्न है क्योंकि तेवरी का तुकविधान
उस भाव का सम्मान करते हुए उसे आगे बढ़ता है, जिसमें व्यवस्था विरोध की तीव्रता होती है।
तेवरी में तुकों के रूप में प्रयुक्त ‘चाकू, हलाकू, डाकू, लड़ाकू’ जैसे तुकान्त तेवरी के भावपक्ष को परिवक्व अवस्था
तक लाने-पहुंचाने में यदि पूरी तरह सहायक हो सकते हैं तो ग़ज़ल
के भावपक्ष का उत्कर्ष ‘प्यार’, यार,
दीदार, रुख्सार जैसे शब्दों को तुक के रूप में
लाने या निभाने से ही सम्भव है।
तेवरी का हर तेवर कुव्यवस्था के विरोध में आग की
भाषा बोलता है जबकि ग़ज़ल का हर शेर अपने स्वतंत्र रूप में ग़ज़ल को इश्क-मोहब्बत के खत लिखता है। ग़ज़ल में प्रेम का व्यापार चलता है और प्रेम में
घनत्व एकाकीपन में होता है। इसलिए ग़ज़ल का हर शेर किसी प्रेमी या आशिक की तरह ‘एकला चलो रे’ की नीति का अनुकरण करते हुए अपनी भूमिका
निभाता है।
शे’र जैसी स्वतंत्रता
चूंकि तेवरी के भावपक्ष के लिए अनुकूल नहीं है, अतः तेवरी के
तेवर स्वतंत्र न रहकर समवेत या एक स्वर में अनीति या अत्याचार का प्रतिकार या विरोध
करते हैं। तेवरी में तेवरों के इस गठन या संगठन से ही आक्रोश जैसा भाव, स्थायी भाव बन जाता है और विरोध-रस की परिपक्व अवस्था
को प्राप्त होता है।
‘‘आपकी जो अदाओं में है, वो सितम इन फिजाओं में है।
कल तलक जुल्म सहता रहा, हौसला अब भुजाओं में है।’’ [शिवनारायण शिव, ग़ज़ल से ग़ज़ल तक, पृ. 115|| जैसे
एक ही के दो शे’रों के
स्वतंत्र किन्तु परस्पर भाव- विरोधी कथन ग़ज़ल की रसात्मकता के
लिए अनुकूल हो सकते हैं क्योंकि जेठ की दुपहरी के ताप से आकुल सांप-बाघ, हिरन और मृग एक ही पेड़ की छांव के नीचे,
एक-दूसरे पर हमला न करते हुए चुपचाप सो सकते हैं।
परस्पर विरोधी या एक दूसरे के दुश्मन शे’रों को ग़ज़ल के छांव में सुलाना, ग़ज़ल या हिन्दीग़ज़ल
का अपनी जमीन से भले ही जुड़ जाना हो या उसका आदर्श हो, लेकिन
ऐसे आदर्श का उत्कर्ष तेवरी में वर्जित है।
तेवरी के तेवरों || द्विपदिका || की सार्थकता तो
तेवरों के उस समूह या योग से सिद्ध होती है, जिसमें हर तेवर का स्वभाव, समभाव के साथ समाज विरोधी तत्वों के घाव करता है।
तेवरी और ग़ज़ल के उपरोक्त विश्लेषण से तेवरी और ग़ज़ल
के कथ्य अर्थात् आत्मरूप या भावरूप के साथ-साथ शिल्प सम्बन्धी विशेषताओं का अन्तर पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है।
‘‘फिर भी कुछ लोग तेवरी को ग़ज़ल ही मानें
तो क्या करोगे? कैसे और किस-किस से लड़ोगे?
उन्हें कैसे समझाओगे कि नयी विधाएं समय की मांग के अनुसार बनती रहती
हैं। ऐसा न होता तो लोग आज भी ऋचाएं ही रचते-पढ़ते या सिर चढ़ाते
रहते।’’ तेवरीपक्ष,
जन.मार्च.-87, पृ.41
वरिष्ठ साहित्यकार बाबूराम वर्मा के उपरोक्त सवालों
का समाधान तो वैसे यही है कि ग़ज़ल के मद में मस्त ग़ज़लकार अपनी आंखें खोलें और ग़ज़ल
और तेवरी को तोलें और बोलें कि तेवरी वास्तव में तेवरी है।
तेवरी का शिल्प और भाव-पक्ष किसी सवालों की झड़ी लगाते यक्ष को उत्तर देने के लिए मजबूर नहीं है।
अगर ग़ज़लकारों को यह मंजूर नहीं है तो तेवरी के
बारे में कुछ तथ्य और सत्य प्रस्तुत करना, हो सकता है
ग़ज़लकारों की मुंदी हुई आंखों को खोलने में सहायक हो। अतः तेवरी और ग़ज़ल के बीच भिन्नता
के कुछ पक्ष और प्रस्तुत हैं -
तेवरी इसलिए भी तेवरी है ----
‘‘ग़ज़ल के मक्ते में तखल्लुस ||उपनाम|| का होना बेहद जरूरी है क्योंकि मक्ता
समाप्ति- सूचक शब्द है और तखल्लुस उसे अन्य शे’रों से भिन्न करता है।’’ || महावीर प्रसाद मूकेश,
ग़ज़लः छन्द चेतना, पृ. 40 || जबकि तेवरी के किसी भी तेवर में तेवरीकार अपना ‘उपनाम’
ला सकता है। या अपने उपनाम को हर तेवर के अन्त में अन्त्यानुप्रासिक
व्यवस्था में निभा सकता है। तेवरीकार दर्शन बेजार की कृति ‘ये
जंजीरें कब टूटेंगी’ में एक तेवरी के हर तेवर के अन्त में ‘बेजारजी’ शब्द का प्रयोग ‘उपनाम’
के रूप में ‘बेजार’ को सम्बोधित
करते हुए हुआ है। इस ‘उपनाम’ की आवृत्ति
ने हर बार यातना-त्रासदी के शिकार आदमी की दुःखती रग को छुआ है।
वैसे तेवरी में यह भी कोई आवश्यक नहीं है कि उपनाम का प्रयोग हो ही।
ग़ज़ल के शे’र को जिन दो पंक्तियों में स्वर के आधार पर अन्त में तुकों का मिलान होता है,
उसे मतला कहा या माना जाता है। पिंगलाचार्य महावीर प्रसाद मूकेश ने अपनी
पुस्तक ‘ग़ज़लः छन्द चेतना’ के पृष्ठ-38
पर मतला का अर्थ-‘सूर्यादि के उदित होने का स्थल’,
‘उफुक || क्षितिज || का वो मुकाम जहां सुबह की रोशनी पहले-पहल जाहिर होती है’, ‘मशरिकी फजा’ अर्थात् पूर्व दिशा की शोभा या प्रातः काल होना आदि-आदि
बतलाये हैं।
पिंगलाचार्य महावीर प्रसाद मूकेश की इन सारी परिभाषाओं
से यह भी स्पष्ट है कि ग़ज़ल के संदर्भ में ‘मतला’
प्रेम-भोग विलास, के अनुप्रास
के यदि प्रातःकाल का प्रतीक है तो तेवरी में वह तेवरी जिसकी दोनों पंक्तियों में अत्यानुप्रासिक व्यवस्था का
योग होता है, उसमें अंधकार से लड़ने, चराग
लेकर आगे बढ़ने, व्यवस्था से जूझने-टकराने
की तैयारी की जाती है।
स्पष्ट है, व्यवस्था विरोध की यह तैयारी, न तो एक प्रेमी द्वारा
प्रेमिका के दर्शन पाने के लिए प्रेम की राह पर पड़ा पहला कदम है और न उजाले का अंधकार के बीच छाया भरम है। तेवरी में तो हर प्रारम्भिक
दो पंक्तियां आहत भावनाओं का या तो करुण बयान हैं या किसी जन-घाव का प्राथमिक उपचार हैं। इस उपचार के लिए यह भी कोई आवश्यक नहीं है कि इन
दोनों पंक्तियों में ‘मतला’ की तरह तुकों
का मिलान हो ही।
ग़ज़ल के लिए मतला आवश्यक ही नहीं, परमावश्यक है जबकि तेवरी की रचना कवित्त के समान तुकों के विधान में भी हो
सकती है।
तेवरी हिन्दी-भाषा में लिखी जाती है। हिन्दी भाषा की लिपि है-देवनागरी।
देवनागरी में
मात्रा को गिराना-बढ़ाना पूरी तरह अनुचित माना गया
है, कुछ वर्णिक छन्द
|| वर्ण की गणना के आधार के कारण || भले ही इसके अपवाद हों, छन्दों के औसत रूप में मात्रा गिराना किसी भी प्रकार स्वीकृति नहीं है। अतः
तेवरी चाहे वर्णिक छन्दों में लिखी जाये या मात्रिक छंदों में उसके लयात्मक ओज की पहचान त्रुटिहीन मात्राओं
के प्रयोग पर निर्भर है जबकि ग़ज़ल में भले ही ‘फाअ, फउफल- फैलुन’ के आधार पर तक्ती
की जाती हो
ग़ज़ल में इस ‘फाअ-फैलुन’ में मात्राओं को गिराने का चलन इतना अधिक मान्य कर दिया गया है
कि ग़ज़ल का लयात्मक आधार बीमार नजर आता है।
स्पष्ट है कि तेवरी के छंद की शुद्ध नाप का माप यदि त्रुटिहीन मात्रा-प्रयोग है तो ग़ज़ल को मापने का आधार बह्र में प्रयुक्त हुए रुक्न या अर्कान
हैं। लेकिन बात जब ग़ज़ल की मापनी की आती है तो पैमाना रुक्न || वर्णसम || का न होकर
मात्रिक हो जाता है , उसपे ग़ज़लकारों का तुर्रा यह कि ग़ज़ल को बह्र में कहा जाता है।
तेवरी मात्रिक और वर्णिक छन्दों में लिखी जाती
है। और छंद की मापनी उसी के अनुरूप रहती है |
‘‘हिन्दी में दो या दो से अधिक शब्दों
के मिलन को ‘समास’
कहते हैं और समास द्वारा जो नया स्वतंत्र शब्द बनता है, उसे ‘समस्त’ शब्द कहते हैं। समास
के अनेक भेद हैं जिनमें एक ‘द्वंद्वसमास है।’ द्वन्द्वसमास’ के नियमाधीन गठित शब्दों का विग्रह करते
हुए विभक्त शब्दों के मध्य संयोजक अव्यय ‘और’ लगाया जाता है। जैसे-रात और दिन, पाप और पुण्य, तन और मन ||महावीर प्रसाद मूकेश,
ग़ज़ल छन्द चेतना पृ. 44||
मूकेशजी इस सामाजिक विवेचन से स्पष्ट है कि हिन्दी में
‘द्वन्द्व समास’ के नियमाधीनन दो शब्दों के बीच योजक शब्द
‘और’ है तो उसको ‘और’ ही लिखा जाएगा। यदि समास द्वारा जो नया शब्द बनेगा
उसमें योजक चिन्ह लगाने के बाद ‘और’ योजक
शब्द लुप्त हो जायेगा। जैसे- रात और दिन का सामासिक रुप होगा
‘रात-दिन’।
तेवरी में वाक्यांश ‘रात और दिन’ को या तो ‘रात और दिन’
ही लिखा जायेगा या द्वन्द्व समाज के नियमानुसार ‘रात-दिन’ के रूप में प्रयुक्त होगा
जबकि ग़ज़ल की पुख्ता जमीन के लिये यह वाक्यांश होगा ‘रातो-दिन’ या ‘रात-ओ-दिन |
तेवरी की जमीन ग़ज़ल की जमीन से सर्वथा भिन्न है।
अतः तेवरी में दो या दो से अधिक शब्दों के योग से सम्मिलित भाव का बोध् कराने वाले
सामासिक शब्दों के उच्चारण ग़ज़ल के सामासिक विधान के बिलकुल विपरीत हैं।
ठीक इसी प्रकार तेवरी में प्रयुक्त स्वर, व्यंजन, विसर्ग संधियों के नियमाधीन दो शब्दों के मिलने के कारण ध्वनि या
ध्वनियों में परिवर्तन आ जाता है, उस परिवर्तन से बने संधि-शब्दों के रूप, ग़ज़ल के संधिशब्दों के रूप से एक दम विपरीत या भिन्न होते हैं। तेवरी में
संधि का आधार यदि स्वर है तो ग़ज़ल में बहुधा
लयात्मक संधियों के रूप दृष्टिगोचर
हैं।
कुछ अपवादों को छोड़कर तेवरी में उपसर्ग ‘अ’, ‘अधि , ‘अन’, ‘अप’, ‘अभि’, ‘अव’, ‘आ’, ‘उप’, ‘कु’, ‘सु’, ‘चिर’, ‘प्रति’, ‘स’,‘स्व’,
को शब्द के पूर्व में
जोड़कर मूल शब्द के अर्थ में परिवर्तन लाया जाता है, जबकि
ग़ज़ल की जमीन को चमकाने के लिये शब्द के पूर्व में ‘दर’,
‘ना’, ‘बा’ ‘बे’
‘ला’ आदि उपसर्ग जोड़ कर मूल शब्द को नया अर्थ
प्रदान किया जाता है।
अस्तु.... ग़ज़ल और तेवरी के अन्तर को लेकर लिखी
गयी उपरोक्त सारी बातों / तथ्यों से निष्कर्ष यही निकलता
है कि ग़ज़ल की अपनी अगर हुस्नो-इश्क की भोगवादी दुनिया है तो
तेवरी का तेवरीपन हिन्दी भाषा की खूबियों के साथ उस कथन से नापा या मापा जाता है, जिसमें हर प्रकार की अराजकता अवांछनीयता के प्रति असहमति प्रतिकार
या फटकार भी लयात्मकत अर्थात तालबद्ध तेवर हैं।
' तेवरी ' ग़ज़ल नहीं है क्योंकि --
' वृहद हिंदी शब्दकोश ' [ सम्पादक- कालिका प्रसाद ] के षष्टम संस्करण जनवरी - १९८९ के पृष्ठ -४९० और ४९३ पर तेवर [ पु . ] शब्द का अर्थ - ' क्रोधसूचक
भ्रूभंग ', ' क्रोध-भरी दृष्टि '
, ' क्रोध प्रकट करने वाली तिरछी नज़र ' बताने के साथ-साथ ' तेवर बदलने
' को - ' क्रुद्ध होना ' बताया गया है | ' तेवरी ' [स्त्री.
] शब्द ' त्यौरी ' से बना
है | त्यौरी या ' तेवरी ' का अर्थ है - ' माथे पर बल पड़ना ' , ' क्रोध से भ्रकुटि का ऊपर की और खिंच जाना ' |
वस्तुतः तेवरी सत्योंमुखी चिन्तन की एक ऐसी विधा है जिसमें शोषण
, अनीति , अत्याचार आदि के प्रति स्थायी भाव ' आक्रोश ' , से ' विरोधरस '
परिपक्व होता है |
कुछ अति ज्ञानी साहित्यकार
'तेवरी ' को '
ग़ज़ल ' का ही रूप मानकर काव्य की इस नूतन विधा पर
हमले बोलते आ रहे हैं और ' तेवरी ' को '
ग़ज़ल ' ही मानने या मनवाने पर आमादा हैं |
' तेवरी ' ' ग़ज़ल ' कैसे है ?, वे इस प्रश्न का उत्तर देने से कतराते हैं | वे हर समय
तेवरीकारों को कुछ इस तरह गरियाते हैं - " तेवरी -
कवि मन - बहलाव के मदारी प्रतीत होते हैं |"
[ डॉ. राजेश्वरी शांडिल्य ] या " आप ग़ज़ल को ' तेवरी ' क्यों कहना
चाहते हैं ? [ डॉ.सुधेश
तेवरी को ग़ज़ल कहने या मानने वालों को हमारा उत्तर सिर्फ इतना
- सा है - " कोठे पर बैठने वाली चम्पाबाई और साम्राज्यवादियों
से टक्कर लेने वाली रानी लक्ष्मीबाई में क्या अन्तर है , उसे
पहचानो | प्रेमिका को बाँहों में भरने के जोश और कुव्यवस्था से
पीड़ित आमजन के आक्रोश को एक ही खाने में फिट मत करो | "
तेवरी और ग़ज़ल में स्पष्ट अंतर बताने वाले हमारे उत्तरों को दरकिनार कर ग़ज़ल के महापंडित अन्ततः ऐसे
व्याख्यान उतर आये हैं - " बुरा न मानें तो एक बात
कहूं - " अब तक पढ़ी तमाम तेवरियाँ . ग़ज़ल का बिगड़ा रूप हैं | " [ज्ञान प्रकाश विवेक ]
तेवरी और ग़ज़ल में मूलभूत अन्तर क्या है ,आइये इसे समझने का प्रयास करें -
ग़ज़ल का अर्थ है - ' प्रेमिका से प्रेमपूर्ण बातचीत ' , जबकि तेवरी का अर्थ
है - ' कुव्यवस्था का विरोध ', इसी कारण
तेवरी को समकालीन यथार्थ की सत्योंमुखी प्रस्तुति के रूप में माना - स्वीकारा गया है |
तेवरी का स्थायी भाव ' आक्रोश ' और
इससे बनने वाले रस का नाम ' विरोध ' है
| जबकि ग़ज़ल एक प्रणय - गीत होने के कारण
शृंगार रस की विधा है |
ग़ज़ल की सम्पूर्ण व्यवस्था में एक ही बहर अर्थात् छंद का समावेश किया जाता है
, जबकि तेवरी के हर तेवर [कथित शे'र ] में दो छंदों का समावेश कर सम्पूर्ण तेवरी को दो
- दो छंदों में भी लिखा जाने लगा है |
तेवरी
की पहली , तीसरी , पाँचवीं
, सातवीं ....पन्क्तियों में मान लो यदि
कोई सोलह मात्राओं का छंद निर्धारित किया गया हो तो दूसरी , चौथी
, छठी , आठवीं ... पन्क्तियों में 14 , 18 , 25 , 30 मात्राओं का अन्य छंद
प्रयोग में लाया जा सकता है | इस प्रकार ग़ज़ल के छंद से अलग विशेषता
वाला पृथक दो पन्क्तियों [कथित मिसरे ] का तेवर [कथित शे'र ] बनाया जा सकता है | तेवरियों में इस विशेषता का आलोक
आपको अवश्य मिलेगा | तेवरियों में एक नहीं अनेक नये छंदों का
मकरंद आप सबको चकित कर सकता है | नया या नये छंद का नाम क्या
है या होना चाहिए , सुधिजन जानें |
तेवरी के हर तेवर में एक नहीं दो-दो स्वरांत [कथित काफिये ] भी अब
तेवरी की शोभा बढ़ाने लगे हैं , जबकि ग़ज़ल के हर शे'र में एक ही काफिया आता है | ठीक यही व्यवस्था तेवरी
के समान्त [ कथित रदीफ़ ] पर भी लागू होती
है |
कहीं - कहीं ग़ज़ल के रदीफ़ - काफियों
जैसी व्यवस्था यदि तेवरी में दृष्टिगोचर होती
भी है तो यह व्यवस्था ' कवित्त ' में भी
मिलती है | क्या ' कवित्त ' को ग़ज़ल कहने या मानने का साहस किसी में है ??
तेवरी में गीतात्मकता पायी जाती है अर्थात् इसके सारे तेवर एक दूसरे के पूरक
बनकर सम्पूर्ण कथ्य को पूर्णता प्रदान करते हैं, जबकि ग़ज़ल का
प्रत्येक शे'र अपनी स्वतंत्र सत्ता लिये हुए होता है |
ग़ज़ल से पृथक तेवरी की विशेषताओं को दरकिनार कर
अगर कोई ग़ज़ल का जानकार तेवरी को फिर भी ग़ज़ल मानता है तो उसे 'नाटक ' और ' एकांकी ' ,
'लघुकथा ' और ' लघुकहानी
' तथा 'चुटकला ' और
' व्यंग्य ' के अन्तर को ध्यान में रखते
हुए यह बताना ही चाहिए कि ग़ज़ल की हू - ब - हू नक़ल ' हज्ल ' ग़ज़ल से अलग विधा
कैसे और क्यों है ??
+रमेशराज
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रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-२०२००१
मो.-९६३४५५१६३०
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