Saturday, July 16, 2016

तेवरीः शिल्प-गत विशेषताएं +रमेशराज




तेवरीः शिल्प-गत विशेषताएं

+रमेशराज
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    जब हम किसी कविता के शिल्प पर चर्चा करते हैं तो शिल्प से आशय होता है-उस कविता के प्रस्तुत करने का ढंग अर्थात प्रस्तुतीकरण। प्रस्तुत करने की यह प्रक्रिया उस कविता की भाषा, छंद, अलंकार, मुहावरे, शब्द-प्रयोग, प्रतीक, मिथक आदि विषय-वस्तुओं के ऊपर पूर्णरूपेण निर्भर होती है।
    इन संदर्भों में यदि हम तेवरी और ग़ज़ल के शिल्प पर सूक्ष्म चिन्तन-मनन करें तो तेवरी और ग़ज़ल एक दूसरे से किसी भी स्तर पर कोई भी साम्य स्थापित नहीं करतीं। तेवरी की रचना अधिकांशतः हिन्दी काव्य के छंदों पर आधारित है अर्थात् तेवरी में सन्तुलन लघु और दीर्घ स्वरों के प्रयोग, क्रम और संख्या अर्थात् मात्राओं के अनुसार किया जाता है। इसके लिये ग़ज़ल की बहरों की तरह लघु और दीर्घ स्वरों का एक निश्चित क्रम में आना कोई आवश्यक शर्त नहीं है। स्वर-प्रयोग इस बात पर ज्यादा निर्भर करते हैं कि रचना अधिक से अधिक सम्प्रेषणशील किस तरह बनायी जाये। और यही कारण है कि तेवरी में इस प्रकार के छंदों का प्रयोग काफी दृष्टिगोचर हो रहा है जो कि भारतीय संस्कृति में रचा-बसा है। चौपाई, दोहा, आल्हा, घनाक्षरी, सवैया, रोला, सरसी, तांटक आदि छंद आम जनता के जीवन के निकट से उठाये गये हैं ताकि तेवरी जन-मानस की भाषा-संस्कृति के साथ घुलमिल कर एक ऐसी भाषा और छंद का निर्माण करे जो अपना-सा लगे। छंदों का प्रयोग उनके पूर्व प्रचलित रूप में न करके उनको अन्त्यानुप्रास वैशिष्ट्य के कारण तेवरी के रूप में स्वीकारा गया है। उदाहरण स्वरूप-
‘‘बस्ती-बस्ती मिल रहे, अब भिन्नाये लोग
सीने में आक्रोश की, आग छुपाये लोग।
मन्दिर-मस्जिद में मिले, हर नगरी, हर गांव
धर्म, न्याय, भगवान से चोटें खाये लोग।
    उपरोक्त छंद दोहे के निकट का छंद है, किन्तु अपने अंत्यानुप्रास की विशेषता के कारण यह दोहा न होकर तेवरीका रूप ग्रहण किये हुए है क्योंकि इसकी प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ पंक्तियों के अन्त में भिन्नाये’, ‘छुपाये’, ‘खायेसमतुकांत और लोगशब्द की पुनरावृत्ति तथा तीसरी पंक्ति का चौथी पंक्ति के अंत्यानुप्रास से मेल न खाना इसे दोहे की विशेषताओं से भिन्न किये हुए हैं या ये कहा जाये कि उपरोक्त प्रयोग दोहों में तेवरी का प्रयोगहै तो कोई अतिशियोक्ति न होगी। ठीक यही बात तेवरी में हिन्दी काव्य के अन्य परम्परागत छंदों के साथ भी लागू होती है।
घनाक्षरी, चौपाई, सरसी, तांटक, आल्हा आदि के तेवरी में कुछ प्रयोग और देखें-
सबकौ खूं  पी लेत सहेली
खद्दरधारी प्रेत सहेली।
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डाकुओं का तुम ही सहारौ थानेदार जी
नाम खूब है रह्यौ तिहारौ थानेदार जी।
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लूटें गुन्डे लाज द्रोपदी नंगी है
देखो भइया आज द्रोपदी  नंगी है।
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बस्ती-बस्ती आदमखोरों की चर्चाएं हैं
अब तो डाकू तस्कर चोरों की चर्चाएं हैं।
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सारी उमर हुई चपरासी चुप बैठा है गंगाराम
चेहरे पर छा गई उदासी चुप बैठा है गंगाराम।
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गांव-गांव से खबर मिल रही, सुनिये पंचो देकर ध्यान।
जनता आज गुलेल हो रही, कविता होने लगी मचान।
    तेवरी की प्रथम दो पंक्तियों जिनके अग्र व पश्च तुकांत आपस में मिलते हैं, उन्हें प्रथम तेवर कहा जाता है। तत्पश्चात् तीसरी व चौथी पंक्ति [ जिनमें तुकांत-साम्य हो भी सकता है और नहीं भी ] को मिलाकर दूसरा तेवर बोला जाता है। ठीक इसी तरह तीसरा, चौथा, पांचवां, अन्तिम तेवर मिलाकर सम्पूर्ण तेवरी का निर्माण होता है।
    तेवरी के तेवरों की कोई संख्या निर्धारित नहीं है, वह दो से लेकर पचास-सौ तक भी हो सकती है। साथ ही कोई जरूरी नहीं कि तेवरी में ग़ज़ल के मतला-मक्ता जैसी कोई मजबूरी हो। समस्त तेवर ग़ज़ल के सामान्य शेरों या मतला-मक्ताओं की तरह भी प्रयुक्त हो सकते हैं। तेवरी में तुकांतों का प्रयोग संयुक्त तथा प्रथक दोनों रूपों में हो सकता है।
तेवरी के तेवरों का कथ्य किसी गीत की तरह श्रंखलाबद्ध तरीके से समस्त पंक्त्यिों के साथ आपस में जुड़ा होता है अर्थात् तेवरी के तेवरों के संदर्भ एक दूसरे के अर्थों को पूर्णता प्रदान करते हुए आगे बढ़ते हैं, जबकि ग़ज़ल के साथ इसके एकदम विपरीत है।
    इस प्रकार छन्दगत विशेषताओं के आधार पर यह बात बलपूर्वक कही जा सकती है कि तेवरी अलग है और ग़ज़ल अलग। जिनमें मात्र अन्त्यानुप्रास [ वो भी ज्यों का त्यों नहीं ] के अलावा कोई साम्य नहीं।
    तेवरी की भाषा जन सामान्य की बोलचाल की भाषा है। इसमें प्रयुक्त होने वाले शब्द जन साधारण के बीच से उठाये गये हैं। कुछ बोलचाल की भाषा के प्रयोग देखिए-
‘‘धींगरा ते कब हूं न पेस तियारी पडि़ पायी
        बोदे निर्बल कूं ही मारौ थानेदारजी।
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नाते रिश्तेदार और यारन की घातन में
जिन्दगी गुजरि गयी ऐसी कछु बातन में।
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यार कछु गुन्डन कौ नेता नाम परि गयौ
हंसि-हंसि देश कूं डुबाय रहे सासु के।’’
    कुछ खड़ी बोली के जन सामान्य के सम्बोधन के प्रयोग-
है हंगामा शोर आजकल भइया रे
हुए मसीहा चोर आजकल भइया रे।
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अब तो प्रतिपल घात है बाबा
दर्दों की सौगात है बाबा।
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कुंठित हर इंसान है भइया
करता अब विषपान है भइया।
    तेवरी की भाषा सपाट और एकदम साफ-साफ है। वह पाठक को लच्छेदार प्रयोगों के रहस्य में उलझाकर भटकाती नहीं है। इसी कारण तेवरी में अभिधा के प्रयोगों का बाहुल्य मिलता है-
खादी आदमखोर है लोगो
हर टोपी अब चोर है लोगो।
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देश यहां के सम्राटों ने लूट लिया
सत्ताधारी कुछ भाटों ने लूट लिया।
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वही छिनरे, वही डोली के संग हैं प्यारे
देख ले ये सियासत के रंग हैं प्यारे।
    तेवरी की भाषा इतनी सहज, सम्प्रेषणीय है कि उसे समझाने के लिये शब्दकोष नहीं टटोलने पड़ते-
रिश्वते चलती अच्छी खासी, खुलकर आज अदालत में
सच्चे को लग जाती फांसी, खुलकर आज अदालत में।
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रोजी-रोटी दें हमें या तो ये सरकार
वर्ना हम हो जायेंगे गुस्सैले खूंख्वार।
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खेत जब-जब भी लहलहाता है
सेठ का कर्ज याद आता है।
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हमारे पूर्वजों को आपने ओढ़ा-बिछाया है
कफन तक नोच डाला लाश को नंगा लिटाया है।
    तेवरी में प्रयुक्त होने वाले अलंकारों में तेवरी के तुकांतों में वीप्सा शब्दालंकार के प्रयोग बहुतायत से मिलते हैं। अर्थात् पंक्तियों के अंत में घृणा, शोक, विस्मय, क्रोधादि भावों की प्रभावशाली अभिव्यक्ति के लिये शब्दों की पुनरावृत्ति होती है-
सब परिन्दे खौफ में अब आ रहे हैं हाय-हाय
बाज के पंजे उछालें खा रहे हैं हाय-हाय।
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खरबूजे पर छुरी चलायी टुकड़े-टुकड़े
इज्जत अपनी बची-बचायी टुकड़े-टुकड़े।
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इस बस्ती में हैं सभी टूटे हुए मकान
सुविधाओं के नाम पर लूटे हुए मकान।
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लूटता साहूकार, क्या कहिये
उसे खातों की मार, क्या कहिये।
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मन पर रख पत्थर कोने में
हम रोये अक्सर कोने में।
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हर सीने में आजकल सुविधाओं के घाव
रोज त्रासदी से भरी घटनाओं के घाव।
    अर्थालंकार के अन्तर्गत बिच्छू, सांप, शैतान, मछली, काठ के घोड़े, रोटी, बहेलिया, आदमखोर, तस्कर, चोर, डकैत, भेडि़या, चाकू, थानेदार, टोपी, वर्दी, कुर्सी, तलवार, गुलेल, साजिशी, जुल्मी, बाज, चील, अत्याचारी, जनसेवकजी, अपराधी, सम्राट, भाटआदि शब्दों का आदमी के लिये उपमानों तथा प्रतीक के रूप में प्रयोग खुलकर मिलता है।
मैं आदमखारों में लड़ लूं
तुझको चाकू बना लेखनी।
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जिस दिन तेरे गांव में आ जायेगी चील
बोटो-बोटी जिस्म की खा जायेगी चील।
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तड़प रहे हैं गरम रेत पर मछली-से
हम भूखे लाचार सेठ के खातों में।
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मंच-मंच पर चढ़े हुए हैं जनसेवकजी
हाथ जोड़कर खड़े हुए हैं जनसेवकजी।
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आदमी को खा रही हैं रोटियां
हिंसक होतो जा रही हैं रोटियां।
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सब ही आदमखोर यहां हैं
डाकू, तस्कर, चोर यहां हैं।
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आप इतना भी नहीं जानते, हद है
गिरगिट भी आज देश में आदमकद है।
    तेवरी में कई स्थानों पर शब्द-प्रयोग इस प्रकार मिलते हैं कि उनके चमत्कारों के कारण सम्प्रेषण अधिक बढ़ जाता है-
सिगरेट, गाय, धर्म, सूअर की बात यहां
मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर की बात यहां।
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दंगा, कर्फ्यू, गश्त, सन्नाटा
शहर-शहर आहत है लोगो।
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बर्दी टोपी लाठी गोली
घायल पीडि़त जनता भोली।
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चांद, सितारे, तारे, घुंघरू, पायल, झांझर, खुशबू, झील।
कैसे-कैसे बुनते सपने अब तो ये दीवाने लोग।
उपरोक्त तेवरों में शब्दों का इस तरह से प्रयोग किया है कि ये शब्द एक साथ मिलकर जो बिम्ब खड़ा करते हैं , उसमें कविता का मुख्य कथ्य छुपा होता है। जैसे प्रथम तेवर के सिगरेट, गाय, धर्म, सूअर, मन्दिर, मस्जिद और गिरजाघर यहां साम्प्रदायिकता का एक जीवंत बिम्ब बनाते हैं।
तेवरी में मुहावरों के अछूते प्रयोग भी मिलते हैं-
‘‘छोटा बड़ा एक दाम होगा
सियासत की फसल का आम होगा।
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जो भी बनता पसीने का लहू
तोंद वालों के काम आता है।
जो भी आता है मसीहा बनकर
सलीब हमको सौंप जाता है।
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भीड़ का चेहरा पढ़े फुरसत किसे
हाथ में सबके लगा अखबार है।
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वैसे तो बिच्छुओं की तरह काटते है ये
अटकी पे मगर तलुआ तलक चाटते हैं ये।
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गोबर कहता है संसद को और नहीं बनना दूकान
परचों पर अब नहीं लगेंगे आंख मूँदकर और निशान।
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हर आदमी आज परेशान है भाई
हादसों के गांव का मेहमान है भाई।
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आजादी का मतलब केवल हाथ जोड़कर खड़े रहो
धोखा देते रहे सियासी चुप बैठा है गंगाराम।
    उपरोक्त तेवरों में सियासत की फसल का आम’, ‘मसीहा बनकर आना’, ‘सलीब सोंपना’, ‘भीड़ का चेहरा पढ़ना’, ‘बिच्छू की तरह काटना’, ‘तलुआ तलक चाटना’, ‘संसद का दूकान बनना’, ‘आंख मूंदकर निशान लगाना’, ‘हादसों के गांव का मेहमान’, ‘हाथ जोड़कर खड़ा रहनाआदि ऐसे मुहावरों के सीधे और सहज प्रयोग हैं जो तेवरी के शिल्प में चार चांद लगा देते हैं।
    तेवरी में समसामयिक यथार्थ के संदर्भों में प्रयुक्त कुछ पौराणिक ऐतिहासिक प्रतीकों और मिथकों के सार्थक प्रयोग और देखिए-
‘‘पी लिया सच का जहर जब से हमारे प्यार ने
जिन्दगी लगती हमें सुकरात का एक घाव है।
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अम्ल से धोये गये अब के सुदामा के चरण
पांव में अब कृष्ण की परात का एक घाव है।
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हंसा रही है एक मुर्दा चेहरे को
जि़न्दगी-सुलोचना क्या करें?
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हाथ जोड़कर महाजनों के पास खड़ा है होरीराम
ऋण की अपने मन में लेकर आस खड़ा है होरीराम।
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होरी के थाने से डर है
झुनियां आज जवान हो गयी।
    इस प्रकार यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि भाषा अलंकार, मुहावरे, प्रतीक, मिथक और शब्द-प्रयोग के आधार पर भी तेवरी और ग़ज़ल में किंचित साम्य नहीं है। एक तरफ ग़ज़ल की भाषा, मुहावरे प्रतीक मिथक, अलंकार और शब्द-प्रयोग में जहां साकी, शराब, मयखाना, वस्ल, दर्द, अलम, यास, तमन्ना, हसरत, तन्हाई, फिराक, महबूबा, नामावर, जाहिद, सुरूर, कमसिनी, प्रेम के तीर खाने की हवस, तसब्बुरे-जाना, मख्मूर आखें, गाल, चाल, तिल, जुल्फों के इर्द भटकाते हैं, वहां तेवरी आम आदमी की भाषा के साथ एकाकार होकर सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देती है।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

मो.-9634551630       

तेवरी के रस-तत्त्व +रमेशराज




तेवरी के रस-तत्त्व 

+रमेशराज
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    काव्य के रसात्मक-विवेचन को लेकर आदि आचार्य भरतमुनि ने काव्य के लिये, जिस भाव-सत्ता को रस-निष्पत्ति के सूत्र में पिरोया था, वह भाव-सत्ता, रस-तत्त्वों के रूप में [ रति, शोक,हास, क्रोध, निर्वेद, वत्सल, भक्ति आदि स्थायी भावों के संचारी भावों सहित ] न पहले पूर्ण थी, न अब है। अतः भावों के रूप में रस-तत्त्वों की इस अपूर्ण तालिका के आधार पर ही काव्य की सम्पूर्ण रसात्मक सामग्री को परखा जाना अशास्त्रीय और कोरा कल्पनामय ही सिद्ध होगा। रीतिकालीन काव्योपरांत कविता ने जिस प्रकार अपनी वैचारिक प्रक्रिया को बदला है, उससे उसकी रस-प्रक्रिया भी परम्परागत रस-प्रक्रिया से काफी भिन्न हो गयी है। उसमें रस-तत्त्व के रूप में ऐसे अनेक भाव जुड़ गये हैं, जिनको पहचाने बिना वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता का रस-विवेचन नहीं किया जा सकता।
    वर्तमान कविता की स्थिति यह है कि एक तरफ जहां इसमें लोक या समाज की पीडि़त, शोषित, दलित, आतंकित, संत्रस्त, भयातुर अवस्था का अनुभव इसे शोक और करुणा से सराबोर किये रहता है, वहीं लोक या समाज को हानि पहुंचाने वाले वर्ग के प्रति इसकी भावात्मकता इसे असंतोष’, ‘आक्रोश’, ‘विरोध’, ‘विद्रोहआदि से सिक्त रहती है।
अतः वर्तमान यथार्थोन्मुखी कविता को जिन रस-तत्त्वों के माध्यम से स्पष्ट किया जा सकता है, वह परम्परागत रस तत्त्वों के साथ-साथ नये रस तत्त्वों के रूप में निम्न ठहरते हैं-
1.करुणा-
काव्य के संदर्भ में करुणा एक ऐसा रस-तत्त्व है, जिसका सम्बन्ध लोक या मानव की शोकाकुल दशाओं, भाव-भंगिमाओं के माध्यम से दर्शायी गयी दुःखानुभूति से होता है। इस दुःखानुभूति को एक कवि या रचनाकार उन अनुभवों से प्राप्त करता है जो लोक या जगत की पीड़ा, छटपटाहट, शोषण, यातना, त्रासदी, तनाव, क्षोभ, अश्रुपात आदि से जुड़े होते हैं। लेकिन यह मनुष्य का स्वभाव है कि वह दुःखानुभूति को दुःखानुभूति के रूप में सुरक्षित नहीं रखना चाहता, अपितु उसे हर हालत में सुखात्मक बनाना चाहता है। कवि-कर्म में यह दुःखानुभूति लोक-रक्षा के विचारसे अभिसिक्त होकर प्रकट होती है। दुःखानुभूति में जुड़े लोक-रक्षाके विचार से उत्पन्न भाव या तत्त्व का नाम ही करुणाहै। वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता का करुणा एक ऐसा प्रधान रस-तत्त्व है, जिसका बीज-रूप अपनी विकास या गति की अवस्था में काव्य की हर प्रकार की रस-प्रक्रिया का अंग बनता चला जाता है। काव्य में आये अन्य प्रकार के रस-तत्त्व जैसे दया आदि भाव भी करुणा के इस बीज-रूप से किसी न किसी रूप में अपना सम्बन्ध बनाये रहते हैं। कुल मिलकार करुणा एक ऐसा बीज-भाव या प्रधान रसतत्त्व है, जिसका यदि दुःखानुभूति से सीधा-सीधा सम्बन्ध है तो लोक को पीड़ा-यातना देने वाले वर्ग के प्रति उभरे क्षोभ, असंतोष, आक्रोश, विरोध, विद्रोह आदि भावों के मूल में भी यही करुणा परोक्ष या अपरोक्ष रूप से अपनी मुख्य भूमिका निभाती है।
    अतः वर्तमान यथार्थोंन्मुखी कविता की रस-प्रक्रिया को समझने के लिये शोषित वर्ग के प्रति, कवि के उन रागात्मक सम्बन्धों को समझना नितांत आवश्यक है जो परोक्ष-अपरोक्ष करुणा से सिक्त रहते हैं।
2. आक्रोश-
वर्तमान कविता में रसतत्त्व के रूप में आक्रोशएक ऐसा भाव है, जो क्रूर-अमानवीय व्यवस्था के शिकार लोक या मानव की उस आन्तरिक दशा का परिचय देता है, जिसमें दलित या पीडि़त वर्ग, शोषक और आताताई वर्ग के प्रति घृणा, अनास्था, विरति आदि के लावे से भरा हुआ ज्वालामुखी बन जाता है। लेकिन यह लावा रौद्रता के रूप में उफन कर बाहर नहीं आता। दलित, पीडि़त वर्ग की इस प्रकार की भाव-दशा के अनुभाव उसकी सुर्ख आंखों, अनवरत चुप्पी, तमतमाते चेहरे, तनी हुई मुट्ठियों आदि के रूप में साफ-साफ अनुभव किये जा सकते हैं। डॉ. स्वर्ण किरण के अनुसार-आक्रोश वस्तुतः व्यक्ति की आन्तरिक घृणा का मूर्त्तरूप है’;1
    ‘‘हमारे साथ अन्याय हो रहा है, हम इस अन्याय को कब तक झेलते रहें? अब अन्यायी का खत्मा होना ही चाहिए’’ जैसे अनेक विचार अपनी ऊर्जस्व अवस्था में उक्त भाव का निर्माण करते हैं। कुल मिलाकर क्रोध से अलग, आक्रोश मानव की एक ऐसी भावत्मक दशा है, जिसमें क्रोध सिर्फ आन्तरिक अवस्था तक ही सीमित रहता है। रौद्रता के रस-परिपाक के रूप में यह दशा कभी भी परिलक्षित नहीं होती।
    वस्तुतः आक्रोश का रसात्मक-बोध ऐसे विरोधको प्रकट करता है जिसका रस परिपाक वचनों की कटुता, शत्रुपक्ष की निन्दा, भर्त्सना, कोसने का सतत् क्रम जैसे अनेक अनुभावों के माध्यम से अनुभूत किया जा सकता है।
सारांश रूप में हम कह सकते हैं कि शत्रु के निरन्तर आघात, प्रहार झेलने के बावजूद, शत्रु को नष्ट न कर पाने की विवशता के विचार से उत्पन्न ऊर्जा का नाम आक्रोशहै।
3. विरोध-
पीड़ादायक, यातनामय हालात से जन्य आक्रोशकी वैचारिक प्रक्रिया जब त्रासद हालात से उबरने के लिए नयी दशा ग्रहण करती है तो इस वैचारिक प्रक्रिया के द्वारा एक नये रस-तत्त्व का निर्माण होता है जिसे विरोधकहा जाता है। आक्रोश का उद्भव विवशता, भय, छटपटाहट आदि की स्थिति में होता है, जबकि विरोधकी वैचारिक प्रक्रिया में साहस नामक तत्त्व और जुड़ जाता है। या हम यह भी कह सकते हैं कि आक्रोश का आगे का चरण विरोधहै। मन इस विरोध की स्थिति में [लगातार आक्रोशित रहने के कारण] पीड़ा देने वाले वर्ग के प्रति साहस के साथ उसका मुकाबला करने के लिए तैयार होने लगता है। उक्त तथ्यों को दर्शन बेजारकी निम्न तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
‘‘कह रहा हूं विवश हो ये तथ्य में
पल रही है वेदना आतिथ्य में।
जो विदूषक मंच पर हंसता रहा
सिसकियां भरता वही नेपथ्य में।
नर्तकी के पांव घायल हो रहे
देखता एय्याश कब यह नृत्य में।
सिर्फ समझौता नहीं है जि़दगी
एक जलती आग भी है सत्य में।
आदमी को अर्थ दे जीने के जो
लाइए तासीर ऐसी कथ्य में।’’
    उपरोक्त तेवरी में एक सामाजिक या आश्रय के रूप में कवि, आलम्बनगत उद्दीपन विभाव [सामाजिक विकृतियां, विसंगतियां] से उत्पन्न क्षोभ, शोकादि के माध्यम से जिन तथ्यों को उजागर करने के लिए विवश हुआ है, वह-विवशता उसके मन में उद्बुद्ध आक्रोश की परिचायक है, जिसमें साहस जैसा तत्त्व जुड़ जाने के कारण विरोधका रस-परिपाक स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है।
    आश्रय के रूप में कवि जब एक विदूषक की मंच और नेपथ्य की जि़न्दगी के बीच एक त्रासदी अनुभव करता है तो उसे लगता है कि कहीं न कहीं ऐसा कुछ जरूर घट रहा है जिसमें आदमी को अपने भीतर एक संग्राम झेलते हुए भी मंच पर हंसने का नाटक करना पड़ रहा है। ठीक इसी तरह की स्थिति उस नर्तकी की भी है, जिसे किसी न किसी मजबूरी ने नृत्य करने पर विवश किया है। स्थिति यह है कि नृत्य के दौरान उसके पांव घायल हो चुके हैं, लेनिक नृत्य का आनंद भोगने वाले एय्याश को इतनी फुर्सत कहां कि नर्तकी के घायल होते हुए पांव देख सके। विदूषक और नर्तकी के प्रति करुणा-भरी दृष्टि रखने वाले कवि में, जीवन की विभिन्न स्तरों पर घटने वाली इस त्रासदी की अर्थमीमांसा यहां उसे मात्र आक्रोश से ही सिक्त नहीं कर रही है, बल्कि कवि के मन का यह आक्रोश उसे विवश जीवन के उन बिन्दुओं पर भी लाकर खड़ा कर रहा है, जिसमें जीवन का अर्थ मात्र एक समझौता या विवशता ही बनकर न रह जाए, बल्कि सत्य में जलती ऐसी आग भी हो जो असत्य को जला सके। इसके लिए जरूरी यह है कि कथ्य अर्थात कर्म में ऐसी तासीर लायी जाये, जो जीवन को त्रासदियों के दमघोंटू माहौल से उबार सके।
    आक्रोश से आगे की यह वैचारिक प्रक्रिया जिस विचार को ऊर्जस्व बनाती है, उसका उद्बोधन यहां भाव के रूप में विरोधको ध्वनित करता है। विरोध की यह ऊर्जा जो कुछ घट रहा है, गलत घट रहा है और ऐसा कुछ घटना नहीं चाहिएके रूप में कवि के मानसिक तंतुओं को उद्वेलित करती है और इसी कारण कवि जीवन को नये अर्थ देने के लिये कथ्य में सत्योन्मुखी तासीर लाने का आह्वान करता है।
    उक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि रस तत्त्व के रूप में विरोधआश्रय को अपनी वैचारिक प्रक्रिया के दौरान जिस प्रकार ऊर्जस्व बनाता है, उसके माध्यम से गलत आचरणों के प्रति मात्र वह आक्रोशित ही नहीं रहता, बल्कि हर गलतके प्रति जूझने या साहस दिखाने के लिए प्रेरित भी करता है।
4. असंतोष-
हम सब [सामाजिक प्राणी होने के नाते] एक दूसरे के प्रति कोई न कोई अपेक्षा रखते हुए जीते आ रहे हैं। जब कोई मनुष्य अपनी अपेक्षा के अनुकूल दूसरी मनुष्य को व्यवहार करता हुआ नहीं पाता है तो पहले मनुष्य में दूसरे मनुष्य के व्यवहार के प्रति असंतोषका भाव जाग्रत हो जाता है। अपेक्षाओं के स्तर पर असंतोष की इस प्रक्रिया का स्वरूप हमें समाज के कई स्तरों पर दिखायी देता है। उद्योगपतियों से जिस प्रकार अच्छा या अधिक वेतन या अनेक सुविधाएं पाने की अपेक्षा मजदूर वर्ग रखता है, ठीक इसी प्रकार की अपेक्षाएं सरकार से सरकारी कर्मचारी रखते हैं। उद्योगपतियों या सरकार द्वारा उचित या अधिक वेतन न दिये जाने पर मजदूर या सरकारी कर्मचारियों की आये दिन होती हड़तालों, प्रदर्शनों में व्याप्त असंतोष को स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। ‘‘ जो कुछ हमें मिल रहा है या सुविधा के नाम पर प्राप्त हो रहा है, वह उचित और पर्याप्त नहीं है’’ जैसे अनेक विचारों से निर्मित होने वाला असंतोष आज की कविता में महत्वपूर्ण स्थान ग्रहण किये हुए है। इस असंतोष की स्थिति आक्रोश से निम्न संदर्भों में भिन्न है-
[क] आक्रोश की स्थिति में आश्रयों के मन के भीतर विवशता, भय और दुःख का समावेश हर स्थिति में रहता है जबकि असंतोष रसपरिपाक तक जब पहुंचता है तो उससे भय की सत्ता समाप्त हो जाती है।
[ख] आक्रोश में कटुवचनों का प्रयोग, शत्रुपक्ष की निन्दा, भर्त्सना या शाप देने, कोसने आदि की क्रिया विवशता, असहायता, निरुपायता तक ही सीमित रह जाती है, जबकि असंतोष में विवशता या असहायता मन को जब उद्वेलित या अशांत बनाती है तो शत्रुपक्ष के प्रति हर प्रकार का संघर्ष, चुनौती और साहस में तब्दील हो जाता है।
[ग] आक्रोश और असंतोष की रस-परिपाक सम्बन्धी अवस्था ऊपरी तौर पर एक जैसी भले ही लगें, किन्तु यदि हम सूक्ष्मता के साथ विवेचन करें तो रस-परिपाक तक पहुंचते-पहुंचते असंतोषअवज्ञा ललकार, चुनौती में अनुभावित होता है तथा ‘विद्रोह’ का उद्बोधन कराता है, जबकि आक्रोश की स्थिति अवज्ञा, ललकार, चुनौती तक पहुंचने के लिये विरोधके रूप में सांकेतिकता में ऊर्जस्व होती है। अर्थ यह कि आक्रोश का रस-पारिपाक  शत्रुपक्ष या कुव्यवस्था से टकराने, जूझने का जहां एक दिशा-संकेत-भर होता है, वहीं असंतोषका रस पारिपाक जूझने, टकराने, चुनौती देने, ललकारने जैसी अनेक क्रियाओं का अनुभावन बन जाता है।
रसतत्त्व के रूप में असंतोषको श्री योगेन्द्र शर्मा की तेवरी के माध्यम से इस प्रकार स्पष्ट किया जा सकता है-
सर पै बस आकाश की ही छत मिली
जि़न्दगी को इस तरह राहत मिली।
एक सुविधा इस तरह से दी गयी
हर किसी की भावना आहत मिली।
    ‘असंतोषके संदर्भ में यदि हम उक्त पंक्तियों का विवेचन करें तो कवि ने यहां आम आदमी की उस जि़न्दगी का जिक्र किया है जिसे आवास के नाम पर कुछ भी नहीं दिया गया है। वह आज भी फुटपाथों पर खुले आकाश के नीचे जाड़ा-पाला, ओला, वर्षा, धूपादि की मार सहते हुए जी रहा है। इसी कारण इस कथित या महज क़ाग़जों पर दी गयी सुविधा ने उसकी भावनाओं को असंतोष से भर डाला है। भावना को आहतबताकर दर्शाया गया यह असंतोष कोयले की खानों के बीच कोयला होते मजदूरों को यदि क्रान्ति के लिए प्रेरित कर उठे तो क्या आश्चर्य-
कोयल-सी जिन्दगी अब तक जिये हैं
खान के मजदूर जैसे हम रहे हैं।
जब कभी भी क्रान्ति बोयी है समय ने
तिलमिलाते-सोच के पौधे उगे हैं। [गजेन्द्र बेबस]
    तात्पर्य यह कि असंतोष एक ऐसा रसतत्त्व है, जो अपनी ऊर्जस्व अवस्था में मन को इतना उग्र बना डालता है कि लोक या मानव क्रान्ति के लिये विद्रोह से सिक्त होने लगता है।
विद्रोह-
सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक व्यवस्था के समीकरण जब लोक या जगत में असफल या असन्तुलित होने लगते हैं, मनुष्य के अथक प्रयास, संघर्ष आदि के उपरांत भी जब कोई वांछित या अपेक्षित हल नहीं निकल पाता तो असंतुलित समीकरणों से जूझते सामाजिक प्राणी अपने भीतर पनपी असंतोष और अशान्ति की अवस्था को समाप्त करने के लिये [उस हर प्रकार की व्यवस्था, जो उन्हें तोष प्रदान नहीं कर पाती] में परिवर्तन या बदलाव तीव्र इच्छा रखने लगते हैं। परिवर्तन की यह तीव्र इच्छा अपनी विभिन्न प्रकार की वैचारिक प्रक्रियाओं से गुजरते हुए, सिर्फ इस निर्णय की प्रक्रिया बनकर रह जाती है कि अब सीधी अंगुली से घी नहीं निकलने वाला, अर्थात् इस व्यवस्था को बदलने के लिये इसके व्यवस्थापकों से टकराने, युद्ध करने, उनके आदेशों की अवज्ञा करने के अलावा कोई चारा नहीं।’’
    परिवर्तन की तीव्र इच्छा रखने वाली यह वैचारिक प्रक्रिया अपनी उर्जस्व अवस्था में विद्रोहनाम से जानी जाती है। व्रिदोह का यह वैचारिक स्वरूप जितना तर्कसंगत, मानवसापेक्ष और लोकहितकारी होगा, उतना ही सत्य शिव और सौन्दर्य की वास्तविक स्थापना के निकट होगा। मार्क्सवादी विचारधारा के तहत रूस में हुआ सशस्त्र विद्रोह, जिसे क्रान्ति के नाम से जाना गया, निस्संदेह मानव मूल्यों की स्थापना पर आधारित था। ठीक इसी प्रकार का विद्रोह सरदार भगतसिंह, चन्द्रशेखर, सूर्यसेन, अशफाक आदि ने अंग्रेजों की आताताई व्यवस्था के विरुद्ध किया था, जिसके मूल में अंग्रेजों की कथित लोकतांत्रिक व्यवस्था के प्रति भारतीय जनता का वह असंतोष था, जो विद्रोह के अतिरिक्त किसी अन्य प्रकार की क्रिया, प्रक्रिया से हल या समाप्त नहीं हो सकता था। लेकिन हमारे राष्ट्र का दुर्भाग्य, क्रान्तिकारियों के सपने साकार न हो सके। आजादी के नाम पर यहां के तस्करों, सेठों, चोर, उचक्कों को आजादी मिली। परिणाम सामने है, जिस प्रकार असंतोष भारतीय जनता में अंग्रेजों की साम्राज्यवादी व्यवस्था के प्रति था, ठीक उसी प्रकार का असंतोष इस वर्तमान व्यवस्था के प्रति जन समुदाय में परिलक्षित होने लगा है। अन्ना हजारे की व्यवस्था को बदलने की मुहिम असंतोष का वर्तमान में सटीक उदाहरण माना जा सकता है।
    साहित्य चूकि समाज का दर्पण होता है, इसलिये आज की कविता वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष से सिक्त होने के कारण विद्रोह का स्वर मुखरित कर रही है। तेवरी चूंकि जन मूल्यों, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति आस्था रखने वाली काव्य की विधा है, अतः वर्तमान व्यवस्था के प्रति इसका रसात्मकबोध विद्रोह से सिक्त न हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। श्री अनिल कुमार अनलअपनी एक तेवरी में विद्रोह का परिचय इस प्रकार देते हैं-
देश भर में अब महाभारत लिखो
आदमी को क्रान्ति के कुछ खत लिखो।
बाग में अब चहचहाहट है नहीं
हर परिन्दा है यहां आहत लिखो।
होने लगा आक्रोश लोगों में युवा
बाजुओं में आ गयी ताकत लिखो।
एक पगड़ी-सा उछाला है जिसे
अब नहीं जायेगी वह इज्जत लिखो।
खेलना अंगार से हर दौर में
है हमारी आज भी आदत लिखो।
    तेवरी के संदर्भ में रसतत्त्वों की यह खोज मात्र करुणा, आक्रोश, विद्रोह, असंतोष और विद्रोह तक ही सीमित नहीं रह जाती, इसके अतिरिक्त भी ऐसे अनेक रसतत्त्व तेवरी में उपस्थित होते हैं, जो इस विधा को उर्जस्व बनाये रखने में अपना सहयोग देते हैं, लेकिन इन सहयोगी रसतत्त्वों की व्यापकता में न जाते हुए हम सिर्फ इतना ही कहना चाहेंगे कि जिन तत्त्वों की विवेचना हमने इस आलेख में की है, यह रस तत्त्व वर्तमान कविता या तेवरी के प्रधान रसतत्त्व हैं, जिन्हें पहचाने बिना आधुनिक कविता के रसात्मकबोध को नहीं समझा जा सकता।
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+रमेशराज, 15/109, ईसानगर, अलीगढ़-202001

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